Jinshasan bal Mandal

Jinshasan bal Mandal This is related to Jainism

30/11/2023
27/08/2022

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06/01/2022
31/10/2021
20/09/2021

शंका-->247(2) सिद्धाचल शाश्वत है, छट्ठे आरे में ७ हाथ मेंसे दूसरे कालचक्र में पहले आरे सीधा ८० योजन का हो जाएगा या फिर क्रमसर वृद्धि पायेगा?

शत्रुंजय का जो ८०/७०आदि योजन बताए हैं वह उसकी ऊंचाई के हिसाब से नहीं मगर तलेटिके घेराव के हिसाब से है।जिसे मूल शब्द से भी पहचाना जाता है।।ऐसा लोकप्रकाशमें कहा है।

प्रश्नोत्तर २१३ के अनुसंधान में.... (परेश संचेती बोरीवली मुंबई)

समाधान-->247(2) पहले आरे में जो ८० योजन का बताया है, वह यह पडते काल-अवसर्पिणी काल को ध्यान में रखकर है।

यानि कि अब छट्ठे आरे के बाद में जो उत्सर्पिणीकालका-चढ़ताकाल का पहेला आरा आएगा,वह पड़ते काल के छट्ठे आरे जैसा होगा।

यानी कि पड़ते काल में जो क्रम से शत्रुंजय का माप है, वह चड़ते काल में रिवर्समें-उल्टेक्रम से रहेगा, यानि कि अवसर्पिणी में जो १ से ६ आरेमें शत्रुंजय अनुक्रम से ८०,७०,६०,५०,१२ योजन और आखिर में ७ हाथ का है।

वह उत्सर्पिणी में-चडतेकाल में १ से ६ आरे में अनुक्रम से ७ हाथ योजन,१२,५०,६०,७०,८० योजन का होगा।

यानि कि पांचवे आरे के बाद छट्ठे आरे में ७ हाथ का शत्रुंजय है, तो बाद के चडतेकाल के छट्ठे आरे के कालचक्र के पहले आरेमें सीथा ८० योजन का नहीं होगा।मगर उस वक्त ७ हाथ का ही होगा। फिर दूसरे आरे में बारह योजन का होगा, और आखरी छट्ठे आरे में ८० योजन का होगा। इस प्रकार से क्रमसर वह बढ़ते जाएगा।

राजू भाई पंडित अहमदाबाद (5-12-2016)

मात्र शत्रुंजय के पर्वत के लिए ही यह बात सीमित नहीं,मगर मनुष्यों के आयुष्य, उंचाई,भूख आदि सभी वस्तुओं के लिए भी अवसर्पिणी का आखरी आरा और उत्सर्गपिणीका पहला आरा एक समान है।
यानी कि अवसर्पिणी (पडता काल) के-१,२,३,४,५,६ = उत्सर्गपिणी(चडता काल) के-६,५,४,३,२,१ आरा होते हैं।

(१) पहला और छट्ठा आरा सूषम सुषमा--चार कोडाकोड़ी सागरोपम का, लोगों का आयुष्य ३ पल्योपम, शरीर ३ गाउ ऊंचा,आहार हर ३ दिन में तुवर के दाने जितना, शरीरमें पांसली २५६, संतति पालन ४९ दिन तक।।

(२) दो और पांच आरा सुषम--नाम का तीन कोडाकोड़ी सागरोपमका, लोगों का आयुष्य २ पल्योपम,शरीर दो गाउ ऊंचा,आहार २ दिन से बोर बेरके जितना, पांसली १२८ संतति पालन ६४ दिन तक।।

(३) तीन और चौथा सुषण दुषम--नाम का दो कोडाकोड़ी सागरोपमका, लोगों का आयुष्य १ पल्योपम, शरीर १ गाउ ऊंचा,आहार हर १ दिन में आंवले जितना,पांसली ६४, संतति पालन ७९ दिन तक।।
पहले दूसरे और तीसरे आरे वाले को 32 और 1 दिन के अंतर से खाना खाने के बावजूद भी उपवास का फल नहीं मिलता क्योंकि उन्होंने पच्चक्खान नहीं लिया और वह लोग पच्चक्खान नहीं कर सकते। सतत अविरति में ही रहते हैं।।

(४) चौथा और तीसरा आरा दुषम सुषम--नाम का ४२,००० वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरोपमका, लोगों का आयुष्य एक क्रोड पूर्व वर्ष का, शरीर ५०० धनुष,आहारादि अनियत समय।।

(५) पांचवा और दुसरा आरा दुषम--नाम का २१,००० वर्ष,आयुष्य ज्यादा में ज्यादा १३० वर्ष, शरीर ७ हाथ ऊंचा,आहारादि अनियत, दिवस में दो-तीन-चार बार करें।।

(६) छट्ठा और पहला आरा दुषम दुषम--नाम का २१,००० वर्ष का, आयुष्य २० वर्ष का, शरीर दो हाथ ऊंचा,आहारादि अनियत।।

पहला छट्ठा, दूसरा पांचवा, तीसरा चौथा, चौथा तीसरा, आरे का अमुक भाग युगलिको का होता है। यानी कि तब जो संतान जन्म लेती है, वह पुत्र पुत्री रूप जन्मती है। यह युगलिकों के जन्म समय उनके माता-पिताजी भी यूगलिक थे,उनका आयुष्य छः महीने जितना ही बाकी रहता है, तब एक युगलिकको जन्म देते हैं। उनका पालन ऊपर बताए मुताबिक के दिवस तक ही माता-पिता करते हैं। क्योंकि तब तक तो यह बालक युवान हो जाते हैं। और वह दोनों पुत्र-पुत्री ही पति-पत्नी के रूप में जीवन पसार करते हैं ।यह पति-पत्नी छःमहीने का आयुष्य बाकी रहे तब युगल को जन्म देते हैं।

युगलिक की मृत्यु एक साथ ही होती है।मरण की उनको कोई पीड़ा नहीं होती।और एक छींक या एक उबासी आए तब उनका मृत्यु हो जाता है। इन युगलिकों में कोई धर्म जैसी चीज नहीं होती। एवं क्रोध आदि भी नहीं होता।

१० कल्पवृक्ष के पास से अपनी इष्टवस्तुएं प्राप्त कर लेते हैं। अगर किसी को मकान की जरूरत पड़े तो वह कल्पवृक्ष के पास घर की मांगनी करते हैं और उसके अधिष्ठाता देबो उसे मकान जैसा बड़ा फल देते हैं। खाना-पीना वस्त्र आभूषण जैसी सभी चीज कल्पवृक्ष के पास जैसी भी इच्छा हो मांगने से मिल जाता है।
और मृत्यु पाकर देवलोक में ही उत्पन्न होते हैं।

यह युगलिक के काल में स्वामी-सेवक भाव, नौकर-चाकर जैसा कुछ भी नहीं होता। इस समय में पशु भी युगलों को जन्म देते हैं। युगलिकक्षेत्र को भोग भूमि भी कहते हैं।

मनुष्यपणेमें सांसारिक सुख की दृष्टि से ऐसा युगलिकपणा पसंद आ जाए ऐसा होने पर भी, वह अनंतकाल तक टिकने वाला नहीं है। इसके अंत में तो संसार में ही रहे होने से, संसार की रझळपाट खड़ी की खड़ी है।

अवसर्पिणी का तीसरा आरा जब ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष और साडा आठ मास बाकी रहे तब,पहले तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है और यही आरे के ३ वर्ष और साडा आठ मास बाकी रहे तो पहले तीर्थंकर प्रभु मोक्ष में पधारते हैं। -८४ लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण होने पर भगवानका निर्वाण होता है।

यानि बाकी रहे ३वर्ष और साडा आठ मास पूरे हुए तब तीसरा आरा पूर्ण होने पर चौथे आरे की शुरुआत होती है। और वह चौथा आरा के ३ वर्ष और साडा आठ मास बाकी रहे तब अंतिम श्री तीर्थंकर प्रभु मोक्ष पधारते हैं।।
और ३ वर्ष और साडा आठ मास बाद पांचवा आरा २१,००० वर्ष का शुरू होता है।

छट्ठा आरा भी २१,००० वर्ष का है।

यह चौथे आरे में २४ में से बाकी रहे २३ श्री तीर्थंकर परमात्मा और १२ में से बाकी रहे ११ चक्रवर्ती एवं ९ वासुदेव, ९ प्रति वासुदेव और ९ बलदेव होते हैं।

इस तरह से २४ श्री तीर्थंकर परमात्मा १२ चक्रवर्ती ९ वासुदेव ९ प्रतिवासुदेव एवं ९ बलदेव ऐसे कुल ६३ शलाका पुरुषों "४२०००वर्ष कम ऐसे १ कोडाकोड़ी सागरोपम और ८४ लाखपूर्व"वर्ष जितने ही काल में सदेहे- साक्षात विद्यमान होते हैं।

और एक अवसर्पिणीकाल के जो ६ आरे हैं उसके कुल वर्ष १० कोडाकोड़ी सागरोपम है।

यानि कि अवसर्पिणीकाल में १,२,५,६ आरे में तो यह 63 शलाका पुरुष तो नहीं ही होते ।तीसरे आरे के भी मात्र आखिरी ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष और साडा आठ मास के ही काल में पहले श्री तीर्थंकर प्रभु और पहले चक्रवर्ती होते हैं। और चौथे पूरे आरेमें ही बाकी के ६१ शलाका पुरुष होते हैं।
लोक की स्थिति यानि लोक का स्वभाव ही ऐसा है कि 24 तीर्थंकर परमात्मा एक अवसर्पिणी और एक उत्सर्पिणी काल में होते हैं।

राजू भाई पंडित अहमदाबाद (5-12-2016)

09/09/2021
25/08/2021
08/06/2021

☀️ *श्री शांतिनाथ भगवान का बृहद इतिहास* ☀️

🪔 *वर्तमान चौबीसी के १६ वें तीर्थंकर.*

★ च्यवन : भाद्रपद वदी ७, हस्तिनापुर
★ जन्म : ज्येष्ठ वदी १३, हस्तिनापुर
★ दीक्षा : ज्येष्ठ वदी १४, हस्तिनापुर
★ केवलज्ञान : पोष सुदी ९, हस्तिनापुर
★ मोक्ष : ज्येष्ठ वदी १३, श्री सम्मेदशिखरजी

भगवान की आयु एक लाख वर्ष की थी, शरीर चालीस धनुष ऊँचा था, सुवर्ण के समान कांति थी, ध्वजा, तोरण, शंख, चक्र आदि एक हजार आठ शुभ चिन्ह उनके शरीर में थे l ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें l

🪔 *च्यवन :-*
कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर राजधानी में कुरुवंशी राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ऐरावती था। भगवान शांतिनाथ के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही इन्द्र की आज्ञा से हस्तिनापुर नगर में माता के आंगन में रत्नों की वर्षा होने लगी और श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा में तत्पर हो गयी। भादों वदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रानी ने गर्भ धारण किया। उस समय स्वर्ग से देवों ने आकर तीर्थंकर महापुरुष का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की । माता ऐरादेवी रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देख रही हैं। धनकुबेर माता के आंगन में रत्नों की वर्षा कर रहे हैं।

🪔 *जन्म :-*
नव मास व्यतीत होने के बाद रानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रात:काल के समय तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय चार प्रकार के देवों के यहाँ स्वयं ही बिना बजाये शंखनाद, भेरीनाद, सिंहनाद और घण्टानाद होने लगे। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्राणी और असंख्य देवगणों सहित नगर में आये तथा भगवान को सुमेरुपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव मनाया। अभिषेक के अनन्तर भगवान को अनेकों वस्त्रालंकारों से विभूषित करके उनका ‘‘शांतिनाथ’’ यह नाम रखा। इस प्रकार भगवान को हस्तिनापुर वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर पुनरपि यहाँ जन्म कल्याणक महोत्सव मनाकर आनंद नामक नाटक करके अपने-अपने स्थान पर चले गये l

उन्हीं विश्वसेन की यशस्वती रानी के चक्रायुध नाम का एक पुत्र हुआ। देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान शांतिनाथ अपने छोटे भाई चक्रायुध के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कांति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया।

इस तरह भगवान के जब कुमारकाल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये, तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया। इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गर्इं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, सेनापति, स्थपति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और स्त्री, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं।

☀️ *चक्रव्रती* : चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत् दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शांतिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे, वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है? इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चामरों को ढुराया करते थे। चक्रवर्तियों के साढ़े तीन करोड़ बंधुकुल होता है। अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, तीन करोड़ उत्तम वीर, अनेकों करोड़ विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। छ्यानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौबीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब और अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं इत्यादि अनेकों वैभव होते हैं l

🔮 *चौदह रत्नों के नाम*- स्त्री, पुरोहित, सेनापति, स्थपति, गृहपति, गज और अश्व ये सात जीवित रत्न हैं एवं छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिंतामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं l

🔮 *नवनिधियों के नाम* - काल, महाकाल, पाण्डु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न ये नौ निधियाँ हैं। ये क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्यों, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हम्र्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं।

⚜️ *दशांग भोग* - दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भोजन, भाजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं। इस प्रकार संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियों से वेष्टित भगवान शांतिनाथ चक्रवर्ती के साम्राज्य को प्राप्त कर दश प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए सुख से काल व्यतीत कर रहे थे। भगवान सोलहवें तीर्थंकर और पाँचवें चक्रवर्ती होने के साथ-साथ बारहवें कामदेव पद के धारक भी थे l

🪔 *भगवान का वैराग्य* : जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष साम्राज्यपद में व्यतीत हो गये, तब एक समय अलंकारगृह के भीतर अलंकार धारण करते हुए उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिये। उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और पूर्व जन्म का स्मरण भी हो गया। तब भगवान संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप का विचार करते हुए विरक्त हो गये। उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर अनेकों स्तुतियों से स्तुति पूजा की, अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्र सभी देवगणों के साथ उपस्थित हो गये। भगवान ने नारायण नाम के पुत्र का राज्याभिषेक करके सभी कुटुम्बियों को यथायोग्य उपदेश दिया l

☀️ *भगवान का दीक्षा ग्रहण* :-
अनन्तर इन्द्र ने भगवान का दीक्षाभिषेक करके ‘‘सर्वार्थसिद्धि’’ नाम की पालकी में विराजमान करके हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्र वन में प्रवेश किया। उसी समय ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर भगवान ने पंचमुष्टि लोंच करके *‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’* कहते हुए नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके ध्यान में स्थिर होते ही मन: पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया l

☀️ *भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति* :-
भगवान शांतिनाथ सहस्राम्रवन में नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे पर्यंकासन से स्थित हो गये और पौष शुक्ल दशमी के दिन अन्तर्मुहूर्त में दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का नाशकर बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का सर्वथा अभाव करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञान से विभूषित हो गये और उन्हें एक समय में ही सम्पूर्ण लोकालोक स्पष्ट दिखने लगा। पहले भगवान ने चक्ररत्न से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर साम्राज्यपद प्राप्त किया था, अब भगवान ने ध्यानचक्र से विश्व में एकछत्र राज्य करने वाले मोहराज को जीतकर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी l

☀️ *समवसरण का संक्षिप्त वर्णन* : यह समवसरण पृथ्वीतल से पाँच हजार धनुष ऊँचा था, इस पृथ्वीतल से एक हाथ ऊँचाई से ही इसकी सीढ़ियाँ प्रारंभ हो गई थीं। ये सीढ़ियाँ एक-एक हाथ की थीं और बीस हजार प्रमाण थीं। यह समवसरण गोलाकार रहता है। इसमें सबसे पहले धूलिसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, पुन: प्रथमभूमि-चैत्यप्रासादभूमि है । इसके बाद निर्मल जल से भरी परिखा है, फिर पुष्पवाटिका (लतावन) हैं, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर से दो-दो नाट्यशालाएँ हैं, उसके आगे दूसरा अशोक, आम्र, चंपक और सप्तपर्ण का वन है, जिसका नाम उपवनभूमि है। उसके आगे वेदिका है, तदनन्तर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके बाद स्तूप, स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएँ हैं। इस प्रकार इस समवसरण में आठ भूमियाँ हैं, चार परकोटे हैं और पाँच वेदियाँ हैं। तदनन्तर पीठिका है। इस पीठिका में तीन कटनी हैं उन पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं। प्रथम कटनी पर धर्मचक्र है, द्वितीय कटनी पर आठ महाध्वजाएँ एवं तीसरी कटनी पर गंधकुटी है। इसके अग्रभाग पर कमलासन पर चार अंगुल अधर ही अर्हन्त देव विराजमान रहते हैं। भगवान पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर स्थित रहते हैं फिर भी अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में ही भगवान का मुँह दिखता रहता है। समवसरण में चारों ओर प्रदक्षिणा के क्रम से पहले कोठे में गणधर और मुनिगण, दूसरे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ, चौथे में ज्योतिषी देवांगनाएँ, पाँचवें में व्यन्तर देवांगनाएँ, छठे में भवनवासी देवांगनाएँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि मनुष्य और बारहवें में पशु बैठते हैं l

☀️ *समवसरण में भव्य जीवों का प्रमाण* :-
भगवान के समवसरण में चक्रायुध को आदि लेकर छत्तीस गणधर थे। बासठ हजार मुनिगण, साठ हजार तीन सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। इस प्रकार बारह गणों के साथ-साथ भगवान ने बहुत काल तक धर्म का उपदेश दिया l

☀️ *भगवान को मोक्षगमन* :-
जब भगवान की आयु एक माह शेष रह गई, तब वे सम्मेदशिखर पर आये और विहार बंद कर अचल योग में विराजमान हो गये। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भगवान चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा चारों अघातिया कर्मों का नाशकर एक समय में लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो गये। वे नित्य, निरंजन, कृतकृत्य सिद्ध हो गये। उसी समय इन्द्रादि चार प्रकार के देवों ने आकर निर्वाणकल्याणक की पूजा की और अंतिम संस्कार करके भस्म से अपने ललाट आदि उत्तमांगों को पवित्र कर स्व-स्व स्थान को चले गये l

🔮 *पूर्व भव* : शांतिनाथ भगवान तीर्थंकर होने से बारहवें भव पूर्व राजा श्रीषेण थे और मुनि को आहारदान देने के प्रभाव से भोगभूमि में गये थे, फिर देव हुए, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वङ्काायुध चक्रवर्ती हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा ली थी और एक वर्ष का योग धारण कर खड़े हो गये थे, तब इनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई थीं, सर्पों ने वामी बना ली थी, पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे और ये वङ्काायुध मुनिराज ध्यान में लीन रहे थे, अनन्तर अहमिन्द्र हुए, फिर मेघरथ राजा हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करते हुए सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था और उसके प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था, फिर वहाँ से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, फिर वहाँ से आकर जगत को शांति प्रदान करने वाले सोलहवें तीर्थंकर, बारहवें कामदेव और पंचम चक्रवर्ती ऐसे शांतिनाथ भगवान हुए l

⚜️ *उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं* - कि इस संसार में अन्य लोगों की बात जाने दीजिए, श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र को छोड़कर भगवान तीर्थंकरों में ऐसा कौन है जिसने पूर्व के बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो? इसलिए हे विद्वान् लोगों! यदि तुम शांति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र का निरन्तर ध्यान करते रहो। यही कारण है कि आज भी भव्यजीव शांति की प्राप्ति के लिए श्री शांतिनाथ भगवान की आराधना करते हैं l

पुष्पदंत तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौन पल्य कम तीन सागर तक धर्म की परम्परा अव्युच्छिन्नरूप से चलती रही। अनन्तर पाव पल्यकाल तक इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पाव पल्य प्रमाणकाल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, उस समय शांतिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्म परम्परा अविच्छिन्नरूप से चली आ रही है l

इसलिए उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि - ‘‘भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभनाथ आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन: पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रगट किया, वही आज तक अखण्डरूप से बाधा रहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्य गुरु श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो पन्द्रह तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था, वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।’’

इस प्रकार से इस हस्तिनापुर नगरी में भगवान शांतिनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ऐसे चार कल्याणक हुए हैं यह बात स्पष्ट है तथा शांतिनाथ ने आम्रवन में दीक्षा ली एवं आम्रवन में ही उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसा कथन तिलोयपण्णत्ति एवं उत्तरपुराण दोनों ही ग्रंथों में स्पष्ट है इसलिए यह हस्तिनापुर नगरी भगवान शांतिनाथ के चार कल्याणकों से पवित्र हो चुकी है l

जिनके शरीर की ऊँचाई एक सौ साठ हाथ थी, जो पंचम चक्रवर्ती थे और बारहवें कामदेव पद के धारी थे, जिनके हिरण का चिन्ह था, जो भादों वदी सप्तमी को माता के गर्भ में आये, ज्येष्ठ वदी तेरस को जन्म लिया और ज्येष्ठ वदी चौदस को दीक्षा ग्रहण किया, पौष शुक्ला नवमी के दिन केवलज्ञानी हुए पुन: ज्येष्ठ वदी तेरस को मुक्ति धाम को प्राप्त हुए, ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें l

🔮प्रस्तुति
जिन-गुरु 📚 अमृत-वाणी,

31/05/2021

#अकबर के नौरत्नों से इतिहास भर दिया पर #महाराजा_विक्रमादित्य के नवरत्नों की कोई चर्चा पाठ्यपुस्तकों में नहीं है। जबकि सत्य यह है कि अकबर को महान सिद्ध करने के लिए महाराजा विक्रमादित्य की नकल करके कुछ धूर्तों ने इतिहास में लिख दिया कि अकबर के भी नौ रत्न थे ।

राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों को जानने का प्रयास करते हैं।
राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। चलिए जानते हैं कौन थे।

ये हैं #नवरत्न –

1– #धन्वन्तरि-
नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।

2– #क्षपणक-
जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।

3– #अमरसिंह-
ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

4– #शंकु –
इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।

5– #वेतालभट्ट –
विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

6– #घटखर्पर –
जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।

इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।
इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।

7– #कालिदास –
ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।

जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।

8– #वराहमिहिर –
भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।

9– #वररुचि-
कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।
इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि
3.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि
Champat Rai

17/04/2021

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🙏 धन्यवाद🙏

🙏जय जिनेन्द्र🙏

😷Stay home stay safe 😷

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16/01/2021

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29/08/2020

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