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Aadat hi bana li hai tum ne to munir apniJis shaher me bhi rahena uktaaye huye rahena. Munir niyaazi sahab.
16/06/2021

Aadat hi bana li hai tum ne to munir apni
Jis shaher me bhi rahena uktaaye huye rahena.

Munir niyaazi sahab.

03/01/2021

कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है

-जौन एलिया

14/10/2020
29/08/2020

غزل
اس لئےمجھ کو میسر تو کہیں بھی نہیں ہے
خواب تو خواب حقیقت کا یقیں بھی نہیں ہے

इस लिए मुझ को मयस्सर तू कहीं भी नहीं है
ख़्वाब तो ख़्वाब हक़ीक़त का यक़ीं भी नहीं है,

ہم تو دریا کو بھی مجرم نہیں ٹھہرا سکتے
ڈوبنے والا کنارے کے قریں بھی نہیں ہے.

हम तो दरिया को भी मुजरिम नहीं ठहरा सकते
डूबने वाला किनारे के क़रीं भी नहीं है

ہاےُ اس شخص کا ایمان کہ کافر کر دے
بد عقیدہ بھی ہے اور منکر - دیں بھی نہیں ہے.

हाय उस शख़्स का ईमाँ कि काफ़िर कर दे
बद- अक़ीदा भी है और मुन्किर-ए- दीं भी नहीं है

کیجے کیسے بھلا اس کے تغافل کا ملال
حسن - انکار تو یہ ہے کہ نہیں بھی نہیں ہے.

कीजिये कैसे भला उस के तग़ाफुल का मलाल
हुस्न-ए- इंकार तो ये है के नहीं भी नहीं है.

تم تو کہتے تھے کہ افلاک کشادہ ہوں گے
پاوُں دھرنے کو یہاں پر تو زمیں بھی نہیں ہے...

तुम तो कहते थे कि अफ़लाक कुशादा होंगे,
पावँ धरने को यहाँ पर तो ज़मीं भी नहीं है

-अज़हर फ़राग़
اظہر فراغ

28/08/2020

मोहब्बत में मेरी तन्हाइयों के हैं कई उन्वां
तेरा आना तेरा मिलना तेरा उठना तेरा जाना

-फ़िराक़ गोरखपुरी

26/08/2020

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी

अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

~नसीर तुराबी

18/08/2020

دن کچھ ایسے گزارتا ہے کوئی
جیسے احساں اتارتا ہے کوئی
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसाँ उतारता है कोई

دل میں کچھ یوں سنبھالتا ہوں غم
جیسے زیور سنبھالتا ہے کوئی
दिल में कुछ यूँ सँभालता हूँ ग़म
जैसे ज़ेवर सँभालता है कोई

آئنہ دیکھ کر تسلی ہوئی
ہم کو اس گھر میں جانتا ہے کوئی
आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

پیڑ پر پک گیا ہے پھل شاید
پھر سے پتھر اچھالتا ہے کوئی
पेड़ पर पक गया है फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

دیر سے گونجتے ہیں سناٹے
جیسے ہم کو پکارتا ہے کوئی
देर से गूँजते हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई

~ گلزار
~ गुलज़ार

یوم پیدائش کی بہت مبارک باد 💐💐

आप के बा'द हर घड़ी हम ने आप के साथ ही गुज़ारी है - गुलज़ार साहब
18/08/2020

आप के बा'द हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है

- गुलज़ार साहब

10/08/2020

किस ने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी

- आरज़ू लखनवी

मरने वालों की खैर हो मौलामेरे दिन भर गुलाब बिकते हैं।मोहम्मद अरशद मिर्ज़ा
18/06/2020

मरने वालों की खैर हो मौला
मेरे दिन भर गुलाब बिकते हैं।

मोहम्मद अरशद मिर्ज़ा

10/06/2020

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना

ये तर्ज़ एहसान करने का तुम्हीं को ज़ेब देता है
मरज़ में मुब्तला कर के मरीज़ों को दवा देना

- अकबर इलाहाबादी

  shb ❤
07/06/2020

shb ❤

दिल इश्क़ में बे-पायाँ सौदा हो तो ऐसा हो दरिया हो तो ऐसा हो सहरा हो तो ऐसा हो - इब्ने इंशा
04/06/2020

दिल इश्क़ में बे-पायाँ सौदा हो तो ऐसा हो
दरिया हो तो ऐसा हो सहरा हो तो ऐसा हो

- इब्ने इंशा

ایک ریاستی فساد کے پس منظر  میں  کہی گئی عرفان صدیقی صاحب کی غزل حق فتح یاب میرے خدا کیوں نہیں ہوا تو نے کہا تھا تیرا کہ...
04/06/2020

ایک ریاستی فساد کے پس منظر میں کہی گئی عرفان صدیقی صاحب کی غزل

حق فتح یاب میرے خدا کیوں نہیں ہوا
تو نے کہا تھا تیرا کہا کیوں نہیں ہوا

جب حشر اسی زمیں پہ اٹھائے گئے تو پھر
برپا یہیں پہ روز جزا کیوں نہیں ہوا

وہ شمع بجھ گئی تھی تو کہرام تھا تمام
دل بجھ گئے تو شور عزا کیوں نہیں ہوا

واماندگاں پہ تنگ ہوئی کیوں تری زمیں
دروازہ آسمان کا وا کیوں نہیں ہوا

وہ شعلہ ساز بھی اسی بستی کے لوگ تھے
ان کی گلی میں رقص ہوا کیوں نہیں ہوا

آخر اسی خرابے میں زندہ ہیں اور سب
یوں خاک کوئی میرے سوا کیوں نہیں ہوا

کیا جذب عشق مجھ سے زیادہ تھا غیر میں
اس کا حبیب اس سے جدا کیوں نہیں ہوا

جب وہ بھی تھے گلوئے بریدہ سے نالہ زن
پھر کشتگاں کا حرف رسا کیوں نہیں ہوا

کرتا رہا میں تیرے لیے دوستوں سے جنگ
تو میرے دشمنوں سے خفا کیوں نہیں ہوا

جو کچھ ہوا وہ کیسے ہوا جانتا ہوں میں
جو کچھ نہیں ہوا وہ بتا کیوں نہیں ہوا

عرفان صدیقی صاحب

हक़ फ़त्ह-याब मेरे ख़ुदा क्यूँ नहीं हुआ
तू ने कहा था तेरा कहा क्यूँ नहीं हुआ

जब हश्र इसी ज़मीं पे उठाए गए तो फिर
बरपा यहीं पे रोज़-ए-जज़ा क्यूँ नहीं हुआ

वो शम्अ बुझ गई थी तो कोहराम था तमाम
दिल बुझ गए तो शोर-ए-अज़ा क्यूँ नहीं हुआ

वामाँदगाँ पे तंग हुई क्यूँ तिरी ज़मीं
दरवाज़ा आसमान का वा क्यूँ नहीं हुआ

वो शोला-साज़ भी इसी बस्ती के लोग थे
उन की गली में रक़्स-ए-हवा क्यूँ नहीं हुआ

आख़िर इसी ख़राबे में ज़िंदा हैं और सब
यूँ ख़ाक कोई मेरे सिवा क्यूँ नहीं हुआ

क्या जज़्ब-ए-इश्क़ मुझ से ज़ियादा था ग़ैर में
उस का हबीब उस से जुदा क्यूँ नहीं हुआ

जब वो भी थे गुलू-ए-बुरीदा से नाला-ज़न
फिर कुश्तगाँ का हर्फ़ रसा क्यूँ नहीं हुआ

करता रहा मैं तेरे लिए दोस्तों से जंग
तू मेरे दुश्मनों से ख़फ़ा क्यूँ नहीं हुआ

जो कुछ हुआ वो कैसे हुआ जानता हूँ मैं
जो कुछ नहीं हुआ वो बता क्यूँ नहीं हुआ

इरफ़ान सिद्दीक़ी साहब

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