Bajrangi Bhajan And Bhakti Mandal

Bajrangi Bhajan And Bhakti Mandal

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12/02/2024

#नवग्रह_के_अति_सुलभ_उपाय
Everyone
सूर्य को अर्घ्य देने से बेहतर है
उगते सूरज को जी-भर निहारना

मोती पहनने से अच्छा है
चांदनी ओढ़ के सोना
और गर हो सके
चंदा का चकोर ही हो जाना

मंगल दुरुस्त करना हो तो
खून की ज़रूरत की ख़बर लगते ही
दौड़ जाना रक्तदान के लिए अस्पताल की ओर,
और ध्यान रहे
किसी का खून बहाने से पहले
जान लेना उसके लहू का रंग

बुध की बेहतरी के लिए
ज़रूरी नहीं है गाय को देना हरा चारा
बस हरी घास पर नंगे पैर चल लेना कुछ देर

गुरु को मनाना हो
तो घूम आना अपने स्कूल या कॉलेज
रिटायरमेंट की दहलीज़ पर खड़े
किसी टीचर के चेहरे की मुस्कुराहट बन जाना

शुक्र की मेहरबानी चाहिए
तो औरतों के साथ तमीज़ से पेश आना
और हो सके तो उन्हें ज़रूर देना
उनके हक़ की इज्ज़त का वो हिस्सा
जिसका मिलना उन्हें सदियों से बाक़ी रहा है

शनि से रहमत चाहिए
तो बुजुर्गों,कमज़ोरों और मजदूरों पर
थोड़ा रहम करना

राहु पर काबू
रखना हो
तो काबू में रखना अपनी भूख,
हर एक तरह की भूख...
वजह उसका कभी पेट नहीं भरता
जो सिर्फ एक सिर है
आखिर उसका पेट भला भरेगा भी कैसे?

केतु से तो बिल्कुल भी मत डरना
वह तुमसे वो सब करवाएगा
जिससे तुम आजिज़ आ चुके हो
सो बस आजिज़ आ जाना

अपना सारा डर
और
सारे दुराग्रह झटक देना
नवग्रह खुद-ब-खुद बेहतर हो जाएँगे.. मां दुर्गा शक्ति का नवार्ण मंत्र का जाप सुबह शाम पौन घंटा रोज करें सारे ग्रह दोष समाप्त हो

🕉🕉️🕉️   ंक्रांति  ☸️☸️☸️🔴 मकर संक्रांति मनाने के पीछे अनेकों कथाएं/मान्यता हैं.🔶 दो अयन होते हैं, दक्षिणायन और उत्तरायण....
15/01/2024

🕉🕉️🕉️ ंक्रांति ☸️☸️☸️

🔴 मकर संक्रांति मनाने के पीछे अनेकों कथाएं/मान्यता हैं.

🔶 दो अयन होते हैं, दक्षिणायन और उत्तरायण.

🔵 मनुष्यों का एक वर्षा देवताओं का रात्रि सहित एक दिन होता है.

🚩 उत्तरायण को देवताओं का दिन होता है, दिन प्रकाश एवं सकारात्मक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है.

⚫ मकर संक्रांति के ही दिन माता गंगा पृथ्वी पर आई थी एवं इसी दिन गंगापुत्र भीष्म ने प्राण त्यागा था.

◼️ इस दिन भगवान् सूर्य नारायण अपने पुत्र शनिदेव के घर आए थे एवं ज्योतिष में सूर्य देव अपने पुत्र एवं शत्रु शनि की राशि मकर में प्रवेश करते हैं.

🦍 पुराणों के अनुसार क्रोधित होकर भगवान् सूर्य ने शनि एवं छाया का घर कुंभ को जला दिया था लेकिन शनि के दो घर है मकर एवं कुंभ, कुंभ के जल जाने पर शनि मकर में रहने लगे.

🐊 यम के समझाने पर सूर्य देव को अपने अपराध का बोध हुआ और शनि से मिलने उनके घर गए, पिता को आया देख शनि देव ने उनका प्रेमपूर्वक स्वागत किया.

🐚 उस समय शनि के घर केवल तिल ही खाने योग्य भोज्य पदार्थ था जिससे उन्होंने अपने पिता का स्वागत किया, अपने पुत्र शनि के सद्व्योहार से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने कुंभ को फिर से बना दिया एवं शनि को वरदान दिया कि वो जब मकर राशि में गोचर करेंगे तो धन-सम्पदा में वृध्दि होगी.

☀ बारह आदित्य है अंशुमान, आर्यमान, इंद्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु.

🌞 इन्ही बारह आदित्यों का अधिपत्य बारह मास एवं बारह राशियों पर है, मकर पर भग का अधिपत्य है और भग, भाग्य एवं समृध्दि के देवता हैं.

♥️ सूर्य का मकर राशि में गोचर भाग्य, धन-सम्पदा एवं समृद्धि को बढ़ाता है.

🔥 मकर राशि कालपुरुष की कुंडली में दसवे भाव में पड़ती है और दसवे भाव में सूर्य के कारक एवं दसवे भाव में दिगबलि होते हैं.

🧡🧡🧡 ज्योतिष में सूर्य एवं शनि 💙💙💙

🦁 सूर्य पूर्व दिशा के स्वामी हैं और शनि पश्चिम दिशा के स्वामी.

🦇 दोनों विपरीत/सप्तक राशि के स्वामी होते हैं, सूर्य राशि के स्वामी एवं शनि कुंभ राशि के स्वामी हैं.

🦏 दोनों एक दूसरे से विपरीत राशियों में उच्च और नीच के होते हैं, सूर्य मेष राशि में उच्च एवं तुला राशि में नीच के होते हैं और शनि तुला में उच्च और मेष राशि में नीच के होते हैं.

🐏 दोनों विपरीत रंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, सूर्य केशरिया या लाल रंग का प्रतिनिधित्व करते जबकि शनि नीले रंग का प्रतिनिधित्व करते हैं.

🖤 सूर्य आत्मा है, प्रकाश है और जीवन देता है जबकि शनि मृत्यु एवं जीवन के गुणवत्ता का प्रतिनिधित्व करता है.

💛 देना और दी हुई वस्तु को ना मांग पाने की प्रवृत्ति सूर्य देता है, जबकि शनि प्रभावित जातक मांगने में हिचकिचाता नहीं है.

💚 सूर्य आत्मसम्मान को दर्शाता है और शनि विनम्रता का.

🦅 लेकिन सूर्य और शनि दोनों ही दसवे भाव के कारक होते हैं.

🔯 सूर्य और शनि दोनों ही सरकार और जन कल्याण या जनता को दर्शाते हैं.

⚜️ सूर्य और शनि दोनों ही सत्ता एवं उच्च संस्थानों को दर्शाते हैं.

♠️ दोनों ही लोकतंत्र को दर्शाते है, शनि का का झुकाव लोकतंत्र की तरफ ओर ज्यादा रहता है.

♦️ दोनों ही कर्मठ, सरल, ईमानदार और जनसमूह के कार्यरत हैं, बस सूर्य में स्वाभिमान है और शनि में धैर्य.

🐎 सूर्य राजा है और शनि प्रजा, दोनों ही शक्तिशाली है, दोनों ही स्वतंत्र हैं, दोनों ही सिद्धान्तवादी है, दोनों ही प्रयोगात्मक(practical) है और दोनों ही न्याय और दण्ड का अधिकार रखते हैं.

🔱 लेकिन एक सूर्य प्रभावित(dominating) जातक भले ही गरीब हो, वो एक झोपड़ी में रह लेगा और उसे ही अपना राजभवन समझेगा, लेकिन किसी से मांगेगा नहीं.

🤘आप सभी को मकर संक्रांति, पोंगल, खिचड़ी, संक्रान्ति उत्सव, बीहू एवं उत्तरायण की हार्दिक शुभकामनाएं 🌞 🌄🌅

काफी साधु संतो के विचार, ज्ञान को सुनकर,ग्रहण करके एक बात बढ़ी गहरी उतरी हैं जीवन में।की अगर व्यक्ति सच्चे दिल से प्रार्...
04/01/2024

काफी साधु संतो के विचार, ज्ञान को सुनकर,ग्रहण करके एक बात बढ़ी गहरी उतरी हैं जीवन में।
की अगर व्यक्ति सच्चे दिल से प्रार्थना कर दें तो वह जरुर पूर्ण हो जाती हैं।
संत कहते हैं किसी को माया देखनी हैं ईश्वर भक्ति की तो, आप अगर किसी भी प्रकार कि समस्या में हैं एकांत में जाएं और 15 मिनिट नाम जप करें उनका जिन्हें आप मानते हैं। आपकों तत्काल लाभ दिखेगा।
इसकी पुष्टि ऐसे होगी की जैसे आप यह सब करेंगे आपका शरीर, मन, आत्मा, दिमाग सब हल्का हो जाएगा।
अगर लाभ नहीं होता तो इसका मतलब साधन में गलती नही हैं, हम ही गलत मार्ग में चल रहे हैं।
पंडित बजरंगी तिवारी (बृजेश)

 #मानसिक_रोग_और_ज्योतिषवात पित्त और कफ के विकार से उत्पन्न अथवा इनमे से कोई दो के आपस मे मिलने से ..या ऊपर नीचे होने से ...
01/10/2023

#मानसिक_रोग_और_ज्योतिष

वात पित्त और कफ के विकार से उत्पन्न अथवा इनमे से कोई दो के आपस मे मिलने से ..या ऊपर नीचे होने से बनने वाले रोगों को शारीरिक रोग कहा जाता है
(त्रिदोष imbalance)

जातक पारिजात के अनुसार ग्रहों की भी मानसिक स्तिथिया होती है

ये 10 तरह की होती है

1- दीप्त
2- प्रमुदित
3-स्वस्थ
4-शांत
5- शक्त
6-प्रपीडित
7-दीन
8-खल
9-विकल
10-भीत

महर्षि पतंजलि ने भी चित्त के क्लेशो के पांच कारण बताए है
1- अविधा - यथार्थ का उचित ज्ञान ना होना

2- अस्मिता- अहंकार के अनुचित प्रयोग को अस्मिता कहते है

3-राग- किसी चीज़ से अत्यधिक आसक्ति को राग कहते है

4- द्वेष - अपने को दैनिय स्तिथि में देखने से दूसरों के प्रति ईर्ष्या की भावना

5- अभिनिवेश- हमेशा म्रत्यु के भय का आभास होना ,

6-आलस- चित्त और शरीर मे भारीपन हो जाना आलस्य है

मानस दुःखज- इस तरह का उन्माद Enemies के डर से ,बहुत ज्यादा अभिलाषाओं के पूरा ना होने से पैदा होता है

आदि कारण मानसिक रोगों के या मानसिक कमजोरी के कारण बनते है

मानसिक रोगों के बारे में कहा गया है कि क्रोध, हर्ष, और शोक आदि आवेगों से उतपन्न रोग मानसिक रोग कहलाते है

जड़ता

चंद्रमा+शनि+गुलिक केंद्र में हो तो व्यक्ति जड़बुध्दि होता है

5वे भाव मे शनि+राहु हो तो भी व्यक्ति जड़ बुध्दि होता है

देखा ये भी गया है कि चर लग्न हो 6th लॉर्ड और राहु देखते हो मंगल 11वे भाव मे हो तो अभिचार यानी (मंत्रादि प्रयोग) से व्यक्ति के शत्रु उसे पागल करने की कोशिश करते है l

कम्जोर चंद्रमा शनि के साथ 12वे भाव मे हो.

कम्जोर चंद्रमा शनि के साथ हो और मंगल उसे देखता हो.

चन्द्र +शनि की युति हो और राहू उसे देखता हो.

मंगल चौथे भाव मे हो और शनि उसे देखता हो.

6ठे भाव का स्वामी व शनि दोनो एक साथ लगन मे हो.

मंगल+बुध 6ठे या 8वे भाव मे हो.

मंगल 3रे भाव मे हो और पापी ग्र्हो से प्रभावित हो.

कन्या लगन मे शनि और राहू एक साथ होने पर.

चंद्रमा और बुध एक साथ केंद्र मे हो और पाप ग्रहो से द्रस्त हो

इंसान स्वस्थ मन और बुध्दि से ही जीवन की यात्रा सम्पन्न कर सकता है और अगर ये ही डिस्टर्ब हो जाये तो जिंदगी अधूरी सी रह जाती है ।

कंस को मारने के बाद भगवान श्रीकृष्ण कारागृह में गए और वहां से माता देवकी तथा पिता वसुदेव को छुड़ाया।तब माता देवकी ने श्र...
10/09/2023

कंस को मारने के बाद भगवान श्रीकृष्ण कारागृह में गए और वहां से माता देवकी तथा पिता वसुदेव को छुड़ाया।
तब माता देवकी ने श्रीकृष्ण से पूछा, "बेटा, तुम भगवान हो, तुम्हारे पास असीम शक्ति है, फिर तुमने चौदह साल तक कंस को मारने और हमें यहां से छुड़ाने की प्रतीक्षा क्यों की?"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "क्षमा करें आदरणीय माता जी, क्या आपने मुझे पिछले जन्म में चौदह साल के लिए वनवास में नहीं भेजा था।"
माता देवकी आश्चर्यचकित हो गईं और फिर पूछा, "बेटा कृष्ण, यह कैसे संभव है? तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "माता, आपको अपने पूर्व जन्म के बारे में कुछ भी स्मरण नहीं है। परंतु तब आप कैकेई थीं और आपके पति राजा दशरथ थे।"
माता देवकी ने और ज्यादा आश्चर्यचकित होकर पूछा, "फिर महारानी कौशल्या कौन हैं?"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "वही तो इस जन्म में माता यशोदा हैं। चौदह साल तक जिनको पिछले जीवन में मां के जिस प्यार से वंचित रहना पड़ा था, वह उन्हें इस जन्म में मिला है।"

जय श्रीकृष्ण 🙏

महर्षि सुश्रुत सर्जरी के आविष्कारक माने जाते हैं...आज से 2600 साल पहले उन्होंने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ...
12/08/2023

महर्षि सुश्रुत सर्जरी के आविष्कारक माने जाते हैं...
आज से 2600 साल पहले उन्होंने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए।

आधुनिक विज्ञान केवल 400 वर्ष पूर्व ही शल्य क्रिया करने लगा है, लेकिन सुश्रुत ने 2600 वर्ष पर यह कार्य करके दिखा दिया था। सुश्रुत के पास अपने बनाए उपकरण थे जिन्हें वे उबालकर प्रयोग करते थे।

महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुत संहिता' ग्रंथ में शल्य चिकित्सा से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में चाकू, सुइयां, चिमटे इत्यादि सहित 125 से भी अधिक शल्य चिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणों के नाम मिलते हैं और इस ग्रंथ में लगभग 300 प्रकार की सर्जरियों का उल्लेख मिलता है...
जय सनातन धर्म की 🚩🚩🙏

24/07/2023

कुंडली के बारह स्थानों को चार पायों में बाँटा गया है. और इन्हें चार धातुओं-सोना, चाँदी, ताँबा और लोहे का नाम दिया गया है।
जन्म के समय चंद्रमा जिस स्थान पर होता है (कुंडली में) उसके अनुसार #पाया जाना जाता है।

1.सोने का पाया : जब चंद्रमा पहले, छठे या ग्यारहवें में हो तो स्वर्ण पाद का जन्म समझा जाता है। श्रेष्ठता क्रम में यह तीसरे नंबर पर आता है।
2.चाँदी का पाया : चंद्रमा दूसरे, पाँचवे या नव वें भाव में हो तो चाँदी के पाए का जन्म माना जाता है। श्रेष्ठता क्रम में यह सर्वोत्तम माना जाता है।
3.ताँबे का पाया : चंद्रमा तीसरे, सातवें या दसवें स्थान में हो तो ताँबे का पाया होता है। श्रेष्ठता क्रम में यह दूसरे क्रम पर है।
4.लोहे का पाया : जब चंद्रमा चौथे, आठवें या बारहवें भाव में हो तो बच्चे का जन्म लोहे के पाए का होता है। यह पाया शुभ नहीं माना जाता।
वास्तव में चंद्रमा 4, 8, 12 में स्वास्थ्य हानि करता है इसलिए लोहे के पाए को अशुभ माना गया है |

18/07/2023
25/06/2023

✔️(1) स्वस्थ सूर्य ~ आत्मविश्वासी, बुद्धिमान, सत्यनिष्ठा, निरोगी और दूरदृष्टि रखने वाला बनाता है...
🌐 पीड़ित सूर्य ~ अहंकारी, अत्याचारी, प्रशंसा की मांग करने वाला, कम आत्मविश्वास वाला, रोगी बनाता है

✔️(2) स्वस्थ चंद्रमा ~ मानसिक शांति, मन की स्पष्टता, निःस्वार्थता, साझा करने का भाव और चेहरे पर चमक देता है...
🌐 पीड़ित चंद्रमा ~ अस्थिर भावनाएँ देता है, चिपकने की आदत देता है, दूसरों पर निर्भर करवाता है, मानसिक शांति व स्थिरता की कमी करता है...

✔️(3) स्वस्थ मंगल ~ केंद्रित ऊर्जा देता है, निर्भीक बनाता है, साहस व मजबूत इच्छा शक्ति देता है, Logical बनाता है...
🌐 पीड़ित मंगल ~ तर्क-वितर्क करने वाला, हिंसक, लापरवाह, अनियंत्रित बनाता है...

✔️(4) स्वस्थ बुध ~ प्रतिभाशाली, लचीला, कुशल, अल्हड़, ज्ञान व खेल कला में रुचि रखने वाला बनाता है...
🌐 पीड़ित बुध ~ अति-उत्तेजित, समायोजित करने में असमर्थ, गपशप करने वाला अकुशल वक्ता बनाता है

✔️ (5)स्वस्थ गुरू ~ आशावान, समझदार, समृद्ध, अच्छा निर्णय करने वाला, विस्तृत व्याख्या करने वाला दार्शनिक, ज्ञानवान बनाता है...
🌐 पीड़ित गुरू ~ लालची, नास्तिक, अव्यावहारिक, आशा की कमी, लोलुपता रखने वाला बनाता है...

✔️(6) स्वस्थ शुक्र ~ खुशी, प्रसन्नता, सौंदर्य, प्रेम, ज्ञान, पवित्रता,ऐश्वर्य, विपुल धन देता है...
🌐पीड़ित शुक्र ~ कामुक गतिविधियां देता है, घमंड, भौतिकवादी पर बर्बाद की गई ऊर्जा देता है, आकर्षण की कमी करता है...

✔️(7)स्वस्थ शनि ~ दृढ़ निश्चयी, अकेले रहने में सक्षम, यथार्थवादी, स्थिर, कर्मठ व जनता का प्रिय बनाता है
🌐 पीड़ित शनि ~ दुःख, अलग-थलग, निर्दयी, भयभीत, कड़वा स्वभाव, अकर्मण्यता व अवसाद देता है

〰️〰️🌼〰️🌼〰️〰️योगो के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास  〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में औ...
21/06/2023

〰️〰️🌼〰️🌼〰️〰️
योगो के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️
योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग। आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।

योग के मुख्य अंग:👉 यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।

योग के प्रकार:👉 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।

1.पांच यम:👉 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।

2.पांच नियम:👉 1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

3.अंग संचालन:👉 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

4.प्रमुख बंध:👉 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।

5.प्रमुख आसन:👉 किसी भी आसन की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन, 10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन 33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन 37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन 42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन, 53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन, 59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन, 64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन, 69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन, 74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन, 79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।

6.जानिए प्राणायाम क्या है:-
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प्राणायाम के पंचक:👉 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:👉 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

प्रमुख प्राणायाम:👉 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम:👉 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम,
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

7.योग क्रियाएं जानिएं:-
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प्रमुख 13 क्रियाएं:👉 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।

8.मुद्राएं कई हैं:-
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6 आसन मुद्राएं:👉 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं👉 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं:👉 उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :👉 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

9.प्रत्याहार:👉 इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

10.धारणा:👉 चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

11.ध्यान :👉 जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार:👉 स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां:👉 श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।

12.समाधि:👉 यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियां हैं :👉 1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात।

सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं-👉 1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योगाभ्यास की बाधाएं:👉 आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

1.राजयोग:👉 यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

2.हठयोग:👉 षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

3.लययोग:👉 यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

4.ज्ञानयोग:👉 साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

5.कर्मयोग:👉 कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

6.भक्तियोग :👉 भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

कुंडलिनी योग 👉 कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार।

72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास
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योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।

योग ग्रंथ योग सूत्र
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वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है-

योगसूत्र👉 योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।

व्यास भाष्य👉 व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी 👉 पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक👉 विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति👉 भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

अष्टांग योग👉 इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में… श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं👉 (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र👉 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है👉 समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

‌दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-

‌ 1👉 यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

‌2👉 नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार के शुद्धि समाविष्ट है

3👉 आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।

4👉 प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

5👉 प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

6👉 धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

7👉 ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

8👉 समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं👉 सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।,

योग साधना द्वारा जीवन विकास
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योग का नाम सुनते ही कितने ही लोग चौंक उठते हैं उनकी निगाह में यह एक ऐसी चीज है जिसे लम्बी जटा वाला और मृग चर्मधारी साधु जंगलों या गुफाओं में किया करते हैं। इसलिये वे सोचते हैं कि ऐसी चीज से हमारा क्या सम्बन्ध? हम उसकी चर्चा ही क्यों करें?

पर ऐसे विचार इस विषय में उन्हीं लोगों के होते हैं जिन्होंने कभी इसे सोचने-विचारने का कष्ट नहीं किया। अन्यथा योग जीवन की एक सहज, स्वाभाविक अवस्था है जिसका उद्देश्य समस्त मानवीय इन्द्रियों और शक्तियों का उचित रूप से विकास करना और उनको एक नियम में चलाना है। इसीलिये योग शास्त्र में “चित्त वृत्तियों का निरोध” करना ही योग बतलाया गया है। गीता में ‘कर्म की कुशलता’ का नाम योग है तथा ‘सुख-दुख के विषय में समता की बुद्धि रखने’ को भी योग बतलाया गया है। इसलिये यह समझना कोरा भ्रम है कि समाधि चढ़ाकर, पृथ्वी में गड्ढा खोदकर बैठ जाना ही योग का लक्षण है। योग का उद्देश्य तो वही है जो योग शास्त्र में या गीता में बतलाया गया है। हाँ इस उद्देश्य को पूरा करने की विधियाँ अनेक हैं, उनमें से जिसको जो अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल जान पड़े वह उसी को अपना सकता है। नीचे हम एक योग विद्या के ज्ञाता के लेख से कुछ ऐसा योगों का वर्णन करते हैं जिनका अभ्यास घर में रहते हुये और सब कामों को पूर्ववत् करते हुये अप्रत्यक्ष रीति से ही किया जा सकता है-

1. कैवल्य योग👉 कैवल्य स्थिति को योग शास्त्र में सबसे बड़ा माना गया है। दूसरों का आश्रय छोड़कर पूर्ण रूप से अपने ही आधार पर रहना और प्रत्येक विषय में अपनी शक्ति का अनुभव करना इसका ध्येय हैं। साधारण स्थिति में मनुष्य अपने सभी सुखों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह एक प्रकार की पराधीनता है और पराधीनता में दुख होना आवश्यक है। इसलिये योगी सब दृष्टियों से पूर्ण स्वतंत्र होने की चेष्टा करते हैं। जो इस आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं वे ही कैवल्य की स्थिति में अथवा मुक्तात्मा समझे जा सकते हैं। पर कुछ अंशों में इसका अभ्यास सब कोई कर सकते हैं और उसके अनुसार स्वाधीनता का सुख भी भोग सकते हैं।

2. सुषुप्ति योग👉 निद्रावस्था में भी मनुष्य एक प्रकार की समाधि का अनुभव कर सकता है। जिस समय निद्रा आने लगती है उस समय यदि पाठक अनुभव करने लगेंगे तो एक वर्ष के अभ्यास से उनको आत्मा के अस्तित्व को ज्ञान हो जायेगा। सोते समय जैसा विचार करके सोया जायगा उसका शरीर और मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। जिस व्यक्ति को कोई बीमारी रहती है वह यदि सोने के समय पूर्ण आरोग्य का विचार मन में लायेगा और “मैं बीमार नहीं हूँ।” ऐसे श्रेष्ठ संकल्प के साथ सोयेगा तो आगामी दिन से बीमारी दूर होने का अनुभव होने लगेगा। सुषुप्ति योग की एक विधि यह भी है कि निद्रा आने के समय जिसको जागृति और निद्रा संधि समय कहा जाता है, किसी उत्तम मंत्र का जप अर्थ का ध्यान रखते हुए करना और वैसे करते ही सो जाना। तो जब आप जगेंगे तो वह मंत्र आपको अपने मन में उसी प्रकार खड़ा मिलेगा। जब ऐसा होने लगे तब आप यह समझ लीजिये कि आप रात भर जप करते रहें। यह जप बिस्तरे पर सोते-सोते ही करना चाहिये और उस समय अन्य किसी बात को ध्यान मन में नहीं लाना चाहिये।

3. स्वप्न योग👉 स्वप्न मनुष्य को सदा ही आया करते हैं, उनमें से कुछ अच्छे होते हैं और कुछ खराब। इसका कारण हमारे शुभ और अशुभ विचार ही होते हैं। इसलिये आप सदैव श्रेष्ठ विचार और कार्य करके तथा सोते समय वैसा ही ध्यान करके उत्तम स्वप्न देख सकते हैं। इसके लिये जैसा आपका उद्देश्य हो वैसा ही विचार भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि आपकी इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो तो भीष्म पितामह का ध्यान कीजिये, दृढ़ व्रत और सत्य प्रेम होना हो तो श्रीराम चंद्र की कल्पना कीजिये, बलवान बनने का ध्येय हो तो भीमसेन का अथवा हनुमान जी का स्मरण कीजिये। आप सोते समय जिसकी कल्पना और ध्यान करेंगे स्वप्न में आपको उसी विषय का अनुभव होता रहेगा।

4. बुद्धियोग👉 तर्क-वितर्क से परे और श्रद्धा-भक्ति से युक्त निश्चयात्मक ज्ञान धारक शक्ति का नाम ही बुद्धि है। ऐसी ही बुद्धि की साधना से योग की विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि अपने को आस्तिक मानने से आप परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं, पर तर्क-युक्त बात ऐसे योग में काम नहीं देती। अपना अस्तित्व आप जिस प्रकार बिना किसी प्रमाण के मानते हैं, इसी प्रकार बिना किसी प्रमाण का ख्याल किये सर्व मंगलमय परमात्मा पर पूरा विश्वास रखने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। जो लोग बुद्धि योग में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको ऐसी ही तर्क रहित श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिए तभी आपको परमात्मा विषयक सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकेगा।

5. चित्त योग👉 चिन्तन करने वाली शक्ति को चित्त कहते हैं। योग-साधना में जो आपका अभीष्ट है उसकी चिन्ता सदैव करते रहिये। अथवा अभ्यास करने के लिए प्रतिमास कोई अच्छा विचार चुन लीजिये। जैसे “मैं आत्मा हूँ और मैं शरीर से भिन्न हूँ।” इसका सदा ध्यान अथवा चिन्तन करने से आपको धीरे-धीरे अपनी आत्मा और शरीर का भिन्नत्व स्पष्ट प्रतीत होने लगेगा। इस प्रकार अच्छे कल्याणकारी विचारों का चिन्तन करने से बुरे विचारों का आना सर्वथा बन्द हो जायगा और आपको अपना जीवन आनन्दपूर्ण जान पड़ने लगेगा।

6. इच्छा योग👉 जिससे मनुष्य किसी बात की प्राप्ति अथवा निवृत्ति की इच्छा करता है उसको इच्छा शक्ति कहते हैं। मनो-विज्ञान की दृष्टि से इच्छा शक्ति का प्रभाव अपार है, जिसके द्वारा सब तरह का महान् कार्य सिद्ध किया जा सकता है। बुराई से बचने का मुख्य साधन इच्छा शक्ति है। आप अपनी प्रबल इच्छाशक्ति द्वारा रोगों के आक्रमण को रोक सकते हैं। मानसिक प्रेरणा देने से बड़ी-बड़ी बीमारियाँ दूर हो सकती हैं। चरित्र सम्बन्धी सब दोषों को भी इच्छा शक्ति द्वारा दूर किया जा सकता है ओर उत्तम आचरण ग्रहण किये जा सकते हैं। यह शक्ति प्रत्येक में होती है, प्रश्न केवल उसे बुराई की तरफ से भलाई की तरफ प्रेरित करने का है।

7. मानस योग👉 मन का धर्म अच्छे और बुरे विचार करना है। मन को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ सकती है और उसे उन्नति तथा कल्याण के कार्यों में लगाया जा सकता है। इसके लिये अभ्यास द्वारा मन को आज्ञाकारी बनाना चाहिये जिससे वह उन्हीं विचारों में लगे जिनको आप उत्तम समझते हैं।

8. अहंकार-योग👉 अहंकार शब्द का अर्थ ‘घमंड” भी होता है पर यहाँ उस अर्थ से हमारा तात्पर्य नहीं है। यहाँ पर इसका भाव अपनी अन्तरात्मा से है। अहंकार योग का उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने को भौतिक शरीर से भिन्न समझे और आत्मा के अजर, अमर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली आदि गुणों का ध्यान करके उनको ग्रहण करने का प्रयत्न करे। जब मनुष्य के भीतर यह विचार जम जाता है तो वह जिस कार्य का या अनुष्ठान का निश्चय कर लेता है, उसे फिर पूरा करके ही रहता है, क्योंकि उसे यह दृढ़ विश्वास होता है कि मैं शक्तिशाली आत्मा का रूप हूँ जिसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं।

9. ज्ञानेन्द्रिय-योग👉 ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी गई हैं-आँख, कान, नाक, जीभ, चर्म। इनका सम्बन्ध क्रमशः अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल और वायु के साथ होता है। इनमें योग साधन के लिये सबसे प्रमुख इन्द्री आँख को माना गया है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिये आँखों की दृष्टि को किसी एक स्थान या केन्द्र पर जमाना होता है। इससे मन की शक्ति बढ़ जाती है और उसका दूसरों पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ने लगता है। इसके द्वारा फिर अन्य इन्द्रियों पर भी कल्याणकारी प्रभाव पड़ने लगता है।

10. कर्मेन्द्रिय-योग👉 कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं👉 वाणी, हाथ, पाँव, गुदा और शिश्न। इनमें सबसे अधिक उपयोग वाणी का ही होता है और वह मानव-जीवन के विकास का सबसे बड़ा साधन है। वाणी द्वारा हम जो शब्द उच्चारण करते हैं उनमें बड़ी शक्ति होती है। योग साधन वाले को वाणी से सदैव उत्तम और हितकारी शब्द ही निकालने चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास करने से अंत में आपको वाक्सिद्धि की शक्ति प्राप्त हो सकेगी।
वास्तव में मनुष्य का समस्त जीवन ही एक प्रकार का योग है। मनुष्य के रूप में आकर जीवात्मा, परमात्मा को पहिचान सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है। इसलिये हमको अपनी प्रत्येक शक्ति को एक विशेष उद्देश्य और नियम के साथ विकसित करनी चाहिये जिससे वह उन्नत होती चली जाय। अगर मनुष्य इस प्रयत्न में सच्चे मन से बराबर लगा रहेगा तो उसे सब प्रकार की दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी और वह परमात्मा के निकट पहुँचता जायगा।
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